-->

प्रबन्ध का भारतीय दृष्टिकोण { गीता एवम प्रबंध / प्रबन्ध का गाँधीयन दृष्टिकोण} Indian Philosophy of Management {Gita and Management & Gandhian Philosophy of Management}

प्रबन्ध का भारतीय दृष्टिकोण { गीता एवम प्रबंध /  प्रबन्ध का गाँधीयन दृष्टिकोण}
Indian  Philosophy of Management {Gita and Management & Gandhian Philosophy of Management}

{1} गीता एवम प्रबंध (Gita and Management)

आज प्रबन्ध कगत में ऐसा महसूस किया जा रहा है कि शायद आधुनिक प्रबंध साहित्य (Modern Management Literature) में सभी प्रबंधकीय समस्याओं के बेहतर हल उपलब्ध नहीं है। प्रबंधकीय समस्याओं के हल के विकल्प के लिये भगवद गीता(Bhagvad Geeta) की ओर देखा जा रहा है। भगवद गीता में भगवान श्री कृष्ण ने केवल आध्यात्मिक ज्ञान(Spiritual Enlightment) ही नहलल्लअनेक प्रबन्धकीय समस्याओं के भी सरल हल भी प्रस्तुत किये हैं। गीता में मुख्य रूप से स्व-प्रबंध (Self Management), दबाव प्रबंध (Stress Management), संघर्ष प्रबंध (Conflict Management),  ट्रांस्फोर्मेशनल नेतृत्व / मैनेजमेंट (Transformational Leadership/Management) क्रोध प्रबन्ध (Anger Management),  लक्ष्य निर्धारण (Goal Setting) तथा अभिप्रेरणा (Motivation) के बारे में अनेक सन्दर्भ उपलब्ध है। मानवीय प्रभावशीलता (Human Effectivness) बढ़ाने के लिए इन सभी विषयों का प्रयोग किया जा सकता है। 'पश्चिमी प्रबन्ध दृष्टिकोण' (Weastern Management Approach) द्वारा  'बाहरी संसार' पर अधिक ध्यान देने को महत्व दिया जाता है। ठीक इस दृष्टिकोण के विपरीत, भगवद गीता का प्रबंध दृष्टिकोण में 'आंतरिक संसार' के महत्व को प्रकाशित करने को कहा गया गया है। अतः आज के आधुनिक युग मे एक सफल प्रबन्धक बनने के लिये यह अति आवश्यक है कि बाहरी बनावटी संसार के स्थान पर आंतरिक वास्तविक संसार की ओर ध्यान केंद्रित किया जाए। ऐसा करने पर ही सभी प्रबन्धकीय समस्याओं को जड़ से समाप्त किया जा सकता है। 

गीता एवम प्रबंध (Gita and Management)

यह माना जा सकता है कि व्यवसाय व अन्य क्षेत्रों में अल्पकाल के लिये 'पश्चिमी प्रबन्ध दृष्टिकोण' के परिणाम बेहतर आ सकते हैं, परन्तु दीर्घकाल में उच्चतम स्तर पर पहुंचने के लिए भगवद गीता के प्रबंध दृष्टिकोण को ही सर्वोत्तम प्रबन्ध मन जाता है। आज के आधुनिक युग मे इसी कारण से भगवद गीता को 'आधुनिक प्रबन्ध दृष्टिकोंण' के विकल्प के रूप में देखा जा रहा है और भगवद गीता फिर से मानव जीवन को शान्ति तथा समृद्धि (Peace and Prosperity) के मार्ग पर वापिस लाने का काम कर रही है। 
भगवद गीता बनाम आधुनिक प्रबन्ध ( Bhagvad Geeta Vs Modern Management):- भगवद गीता में दी गयी प्रबंध की जानकारी तथा आधुनिक प्रबंध में दु गई जानकारियां जो कि पश्चिमी देशों की देन है, इन दोनो में एक मुख्य अंतर है। आधुनिक प्रबंध में मुख्यतः प्रबन्धकीय समस्याओं के बाहरी(External) तथा भौतिक(Material) रूप पर ध्यान केंद्रित करने को कहा गया है इसके विपरीत भगवद गीता में इन्हीं समस्याओं के सम्बंध में मानवीय सोच की जड़ (Graas Root Level) तक पहुचने को कहा गया है। भगवद गीता में यह कहा गया है कि यदि मानवीय  सोच सकारात्मक विचारों वाली हो जाये तो व्यक्ति की क्रियाओं(Activities) तथा परिणामों (Results) की गुणवत्ता(Quality) स्वतः ही सर्वोच्चतम स्तर की हो जाएगी।
मुख्य प्रबन्धकीय समस्याएं (Main Managerial Problems):- आज के प्रबंध जगत में बहुत सी समस्याएं उत्पन्न हैं। उनमें से कुछ मुख्य समस्याएं निम्नलिखित हैं :- 
1. भौतिकवाद द्वारा प्रबन्ध ( Management By Materialism):- आज के आधुनिक युग में प्रबन्धकों की सोच भौतिकवाद पर टिकी हुई है। मुख्यतः यह सोच पश्चिमी देशों की देन है। इस सोच का आधार उपलब्ध संसाधनों की गुणवत्ता/क्वालिटी को अनदेखा करते हुए अधिकतम लाभ के लक्ष्य को प्राप्त करना है। इसी सोच को 'भौतिकवाद द्वारा प्रबन्ध का नाम दिया गया है। भौतिकवाद द्वारा प्रबन्ध की सोच का प्रभाव भारत में ही नही अपितु पूरे विश्व मे देखने को मिल रहा है। विशेषकर भारत मे यह धारणा प्रसारित है कि जो पश्चिमी देशों से आयात किया क्या है वह श्रेष्ठ तथा सर्वोत्तम है तथा जो भारत मे बना है वह घटिया तथा बेकार है। भारत मे प्रबन्ध संसाधनों में बड़ी मात्रा में निवेश किया गया है परन्तु भौतिकवाद द्वारा प्रबन्ध के करण वे परिणाम देखने को नहीं मिल रहे हैं जिनकी अपेक्षा की जा रही थी। भारत में यह स्थिति केवल व्यावसायिक क्षेत्र की ही नही है बल्कि अर्थव्यवस्था (Economy) के सभी क्षेत्रों की यही स्थिति है।
2. मानव-शक्ति: एक व्यापारिक उत्पाद (Human Power: A Mercantile Product):- आज के आधुनिक युग के प्रबन्ध जगत की दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि मानव शक्ति को इंसान न समझकर एक उत्पाद माना  जा रहा है। इसके अनुसार यह एक ऐसा उत्पाद है जो आसानी से प्राप्त किया जा सकता है व इसका जब तक चाहे प्रयोग किया जा सकता है तथा अपनी इच्छा से जब चाहे निकला जा सकता है। प्रबन्ध का पश्चिमी विचार मानव शक्ति को और अधिक कुशल तथा उत्पादकीय बनाने पर ही केंद्रित है। कम्पनियां कर्मचारियों को अधिक से अधिक ऑफर या लालच देतीं हैं ताकि वे और अधिक काम करें तथा अधिक से अधिक उत्पादन करें। अधिक उत्पाद बेचें तथा बिना किसी सोच विचार के संगठन के नियमों का पालन करते रहे। कर्मचारियों से अधिक बेहतर परिणाम प्राप्त करने का एकमात्र उद्देश्य व्यवसाय की नींव को अधिक मजबूत करना है। व्यवसाय की नींव को मजबूत करना कोई गलत बात नहीं है परंतु मानवता का हनन करके ऐसा करना समझदारी की बात नहीं है। अतः यह कहा जा सकता है कि आज मनवता अथवा मानव शक्ति एक उत्पाद बनकर रह गया है। यह स्थिति कर्मचारियों में संगठन के प्रति लागत को शून्य की ओर ले जा रही है। इसी दशा का यह परिणाम की कर्मचारी ओर लाभ प्राप्त करने के लिये घेराव, हड़ताल तथा धरना आदि करने से घबराते नहीं है। इसी कारण समाज को भारी क्षति पहुंच रही है। दूसरी ओर यह स्थिति कर्मचारियों तथा मालिकों के मध्य मतभेद(Friction), सन्देह(Suspicion) तथा विश्वास भंग(Disilliusion) पैदा कर रही है। निसंकोच रूप से 'पश्चिमी प्रबन्ध दृष्टिकोण' से लोगों को कुछ समय के लिये समृद्धि प्राप्त करवा सकता है परंतु समाज की भलाई के लिए यह पूरी तरह से असफल है।
निष्कर्ष के रुप में यह कहा जा सकता है कि आज प्रबन्ध के विषय-सामग्री, क्षेत्रों तथा उद्देश्यों की पुनः जाँच (Re-Examine) की सख्त जरूरत है। प्रबन्ध को पुनः परिभाषित करके मानव शक्ति को केवल एक उत्पाद तथा जीविका अर्जित करने वाला न समझकर एक मानव माना जाना चाहिये।
प्रबन्धकों को गीता की सीख(Lesson To Manager From Geeta):- जैसा कि स्पष्ट है कि आधुनिक प्रबन्ध की विचारधारा का भगवद गीता के संदर्भ में पुनः आंकलन करने की अति आवश्यकता है। गीता में प्रबन्ध से सम्बंधित निम्नलिखित मुख्य तथ्य प्रस्तुत किये गए हैं:- 
1. प्रभावशीलता(Effectiveness)
2.निर्लिप्तता(Detachment)
3. कार्य संस्कृति(Work Culture)
4.कार्य परिणाम(Work Result)
5.प्रबन्धक का मानसिक स्वास्थ्य(Manager's Mental Health)
1. प्रभावशीलता(Effectiveness):- किसी भी प्रबंधक के मस्तिष्क में यह प्रश्न हमेशा रहता है कि वह अपने काम या जॉब में प्रभावी कैसे बने। इस प्रश्न का उत्तर भगवद गीता में स्पष्ट किया गया है। भगवद गीता में यह बार बार कहा गया है हमें स्वयं का प्रबंध करने का प्रयत्न अवश्यमेव करना चाहिये। इसका एकमात्र कारण यह है कि जबतक एक प्रबन्धक प्रभवशीलता तथा श्रेष्ठता के स्तर तक नहीं पहुंचता तब तक वह भीड़ में एकमात्र चेहरा बनकर रह जाता है। किसी भी प्रबन्धक को श्रेष्ठता तथा प्रभावशीलता केवल प्रयत्न से ही प्राप्त हो सकती है । यही कारण है कि गीता में फल की बजाय प्रयत्न पर अधिक जोर देने को कहा गया है।
प्रभावशीलता को एक अन्य उदाहरण द्वारा भी समझा जा सकता है। यह जग जाहिर है कि प्रत्येक संसाधन जैसे- धन (Money), माल (Material), मशीन (Machine) तथा मानव शक्ति (Man Power) आदि सीमित मात्रा में ही उपलब्ध रहते है। व्यवसाय तथा अन्य क्षेत्रों में सफलता प्राप्ति के लिए संसाधनों(Resources) का प्रभावी प्रयोग अति आवश्यक हैं। भगवद गीता प्रभाव शीलता का एक बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत करती है। महाभारत युद्ध के दौरान दुर्योधन(Duryodhna) तथा अर्जुन (Arjun) दोनों के समक्ष उनकी मदद के लिये दो विकल्प(अर्थात संसाधन) उपलब्ध थे- प्रथम श्री कृष्ण की विशाल सेना तथा द्वितीय- स्वयं श्री कृष्ण। दुर्योधन ने अपनी मदद के लिये श्री कृष्ण की विशाल सेना का चयन किया। जबकि दूसरी ओर, अर्जुन ने श्री कृष्ण को चुना । इस घटना से हमें यह जानकारी मिलती है कि दोनों में से कौन प्रभवी प्रबन्धक है। अर्जुन ने उपलब्ध संसाधनों का बेहतर प्रयोग करते हुए श्री कृष्ण का चयन किया और विजय प्राप्त की। महाभारत की यह घटना प्रबन्धकों को प्रभावशीलता का पाठ पढ़ाती है।
2.निर्लिप्तता(Detachment):- कर्म तथा फल से हम सभी लोग अच्छी तरह से परिचित हैं। पवित्र भगवद गीता हमे बताती है कि कर्म तथा फल में दूरी बनाकर रखनी चाहिए। दूसरे शब्दों में केवल कर्म करना ही हमारे अधिकार में आता है इसलिए हमें इसी पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। दूसरी ओर  फल पर हमारा कोई अधिकार नहीं है। अतः फल की ओर अपना ध्यान हटाकर रखने में ही बुद्धिमानी है। इसी संदर्भ में, गीता के दूसरे अध्याय में कहा गया है कि - 
                "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
                 मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोस्त्वकर्मणि।।"
इस श्लोक का अर्थ है, " आपको बस कर्म करते रहना चाहिए, फल की चिंता नही करनी चाहिए। आपको कार्य के फल के कारणों की भी चिंता करने का भी अधिकार नही है। आपको बिना कर्म किये समाज मे रहने का अधिकार भी नहीं है। " 
भगवद गीता का यह श्लोक व्यक्ति को कर्म के फल की या परिणाम की चिंता करने से दूर रहने की सलाह देता है। जब हम कहते हैं कि आपको परिणाम की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है तो इसका सीधा अर्थ है कि परिणाम से अपना ध्यान हटाएं और कर्म की ओर ध्यान केंद्रित करें। इस तरह से परिणाम स्वत् ही आने लगेंगे।

गीता एवम प्रबंध (Gita and Management)

भगवद गीता में यह संदेश दिया गया है कि- किसी भी काम को इसलिए करें क्योंकि वह काम आपको करना है न कि यह सोच कर करें कि इससे आपको कोई पारितोषक प्राप्त होगा।" यदि हम ऐसी भवना से काम करेंगे तो हमें काम में महारथ हासिल होगी।
भगवद गीता में यह भी कहा गया है कि भविष्य की चिंता हमारे वर्तमान कार्य निष्पादन में कमी लाती है। इस बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए कहा गया है कि वर्तमान जिम्मेदारी(Present Commitment) को अनिश्चित भविष्य के हाथों में बंधक(Mortgage) न बनाएं।
3. कार्य संस्कृति(Work Culture):- भगवद गीता के सोलहवें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने दो तरह की कार्य संस्कृति की बात बताई है - 
(1) दैवी कार्य संस्कृति(Devine Work Culture):- इस कार्य संस्कृति की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं - 
• शुद्धता(Purity)
• निडरता(Fearlessness)
• समर्पण(Sacrifice)
• स्पष्टवादिता(Straight  Forwardness)
•आत्म नियंत्रण(Self Control)
•शान्तचित्तता(Calmness)
• लालच से दूर(Absence of Greed)
• दोष न ढूंढना(Absence of fault finding)
• भद्रता(Gentleness)
• गर्व से दूर(Absence of Pride)
• वैर से दूर(Absence of Envy)
• सौम्यता(Modesty)
(2) आसुरी कार्य संस्कृति(Asuri Work Culture):- इस कार्य संस्कृति की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
• मोह(Delusion)
• अहम(Egoism)
• नकारात्मक कार्य निष्पादन(Improper Work Performance)
• इच्छा केंद्रित(Personal Desires)
• सेवा के लिए कार्य न करना(Work Not Oriented Towards Services)
भगवद गीता प्रबन्धकों को यह उपदेश देती है कि यदि आप सफलता प्राप्ति की इच्छा रखते हैं तो दैवी कार्य संस्कृति को ही अपनाएं। यहाँ स्पष्ट कहा गया है कि केवल कार्य करने में ही नैतिकता नही होनी चाहिए बल्कि वही कार्य किया जाना चाहिए जो नैतिक हो। उदाहरण के लिए यदि एक चोर चोरी करने में निपुण है तो यहाँ स्पष्ट है कि उसमें कार्य नैतिकता तो है लेकिन उसके कार्य में नैतिकता नहीं है। अन्य शब्दों में उसे चोरी करने में तो महारथ हासिल है लेकिन उसका यह कार्य गलत काम है।
निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि 'देवी कार्य संस्कृति' ही सफलता का मूल मंत्र है।
4. कार्य परिणाम(Work Result):- एक व्यक्ति द्वारा किये गए किसी काम के परिणाम के सम्बंध में भगवद गीता में कहा गया है कि - 
• यदि ईमानदारी से किये गए प्रयत्न का परिणाम सफलता हो तो पूरा श्रेय काम करने वाले को नही देना चाहिए।
• यदि ईमानदारी से किये गए प्रयत्न का परिणाम असफलता हो तो भी पूरा दोष काम करने वाले को नहीं देना चाहिए।
प्रथम स्थिति व्यक्ति के घमण्ड पर रोक लगती है तथा दूसरी स्थिति खिन्नता, दुखी तथा हतोत्साहित होने से बचाती है। अतः यह कहा जा सकता है कि उपरोक्त दोनों स्थितियां काम करने वाले को मानसिक दुर्बलताओं से दूर रखती हैं। आज जो भी प्रबन्धक इन नियमों का पालन नहीं कर रहे है वे मधुमेह(Diabetes) तथा उच्च रक्तचाप(High Blood Pressure) से पीड़ित हैं।
'कार्य परिणम के सम्बंध में भगवद गीता में कहा गया है कि यदि कार्य समर्पण भाव से किया जाए तो उसका परिणाम हमेशा सकारात्मक होता है।' इसी कथन में निम्नलिखित फार्मूला महत्वपूर्ण है- 
        "Karamyoga + Bhktiyoga = Worship"
यदि 'कर्मयोग' के साथ 'भक्तियोग' को मिला दिया जाए तो फल 'पूजा' के रूप में मिलता है। दूसरे शब्दों में यदि 'सेवा' को 'समर्पण' भाव से किया जाए तो सकारात्मक फल प्राप्त होता है।
5.प्रबन्धक का मानसिक स्वास्थ्य(Manager's Mental Health):- स्वस्थ मस्तिष्क का होना सभी क्रियाओं के लिए जरूरी है लेकिन प्रबन्ध के लिए यह अतिआवश्यक है। स्वस्थ मस्तिष्क वाले व्यक्ति की मुख़्य विशेषता यह है कि वह शांत रहता है तथा सकारात्मक सोचता है। 
गीता में कुछ बाधाओं/अड़चनों का वर्णन किया गया है जो एक प्रबन्धक के मस्तिष्क को अस्वस्थ करती हैं। ये बाधाएं निम्नलिखित हैं-
• लालच (Greed):- एक व्यक्ति को पद(Position), सत्ता(Power),धन(Money) तथा ख्याति(Prestige), का लालच हो सकता है।
• ईर्ष्या(Envy):- एक व्यक्ति को किसी दूसरे व्यक्ति की तरक्की, सफलता था इनाम प्राप्ति से ईर्ष्या हो सकती है।
• अहंकार(Egoism):- एक व्यक्ति को अपनी उपलब्धियों(Accomplishment) पर अहंकार हो सकता है।
उपरोक्त सभी बाधाएं जब एक प्रबन्धक के मस्तिष्क को अस्वस्थ कर देती है तो वह अपने व्यवसाय में अनैतिक कार्य करने लग जाता है, जैसे- कर की चोरी, संगठन की गुप्त सूचनाओं को एकत्रित करना, आदि।
गीता में ऊपर वर्णित बुराइयों से बाहर निकलने के उपाय भी बताए गए हैं जो निम्नलिखित है: 
• जीवन का मजबूत दर्शन (Sound Philosophy) पैदा करना।
• स्वयं को पहचानना।
• 'काम ही पूजा है' के सिद्धांत का पालन करना।
जब एक प्रबन्धक उपरोक्त उपाय करेगा तो स्वस्थ मस्तिष्क के मार्ग में आने वाली सभी बाधाएं स्वत् ही दूर हो जाएगी।
उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि भगवद गीता में सभी प्रबन्धकीय समस्याओं का हल निहित है। यही कारण है कि आज प्रबन्ध के सभी पाठ्यक्रमों में भगवद गीता में दिए गए उपदेशों को सम्मिलित किया जा रहा है।
{2} प्रबंध का गाँधीयन दृष्टिकोण ( Gandhian Philosophy of Management) 

प्रबंध का गाँधीयन दृष्टिकोण ( Gandhian Philosophy of Management)

हम सभी महात्मा गांधी जी को तो जानते है । महात्मा गांधी एक ऐसे व्यक्तित्व का नाम है जिन्होंने सामाजिक भलाई के लिए केवल एक नहीं बल्कि अनेक भूमिकाएं अदा की हैं। महात्मा गांन्धी जी द्वारा अदा की गई भूमिकाओं में मुख्य भूमिका इस प्रकार है - चिन्तक(Thinker), नेता(Leader), दार्शनिक(Philosopher), महात्मा (Saint), राजनेता(Politician) इत्यादि। गांधी जी ने इन सभी भूमिकाओं में सफलतापूर्वक काम करते हुए जीवन भर देश और समाज की सेवा की है। गांधी जी ने ही लोगों को प्रेम(Love), सत्य(Truth) तथा अहिंसा(Non-Violence) का पाठ पढ़ाया है। ग़ांधी जी का यह मानना था कि इन तीनो सिद्धान्तों का सफलतापूर्वक पालन करते हुए आसानी से सफलता को प्राप्त किया जा सकता है। इस स्थिति में मुख्य बात यह है कि गांधी जी ने लोगों को किन्ही पुस्तकों से नहीं बल्कि अपनी जीवन की क्रियाओं (Activities) तथा अपनी कार्यशैली(Working Style) से पढ़ाया है। यहां तक कि गांधी जी के बताए गए मार्गों पर चलकर सभी प्रबंधकीय समस्याओं को भी आसानी से हल किया जा सकता सकता है। गांधीजी की कार्यशैली से आधुनिक प्रबन्धकों के लिए छह महत्वपूर्ण सिद्धान्त उजागर होते हैं, इन सिद्धांतों का वर्णन इस प्रकार से है:- 
आधुनिक प्रबंधको के लिए गांधी जी के सिद्धांत (Gandhi's Principles for modern Managers):- गांधी जी ने प्रबंधको के लिए निम्नलिखित छह सिद्धांत दिए है :- 
1. जो कहो, सो करो (Walk The Talk):- महात्मा गांधी जी हमेशा कहा करते थे कि 'जो कहो सो करो' । उनका मानना था कि 'कथनी और करनी' में कभी कोई अंतर नहीं करना चाहिए। गांधी जी कोई भी नैतिक मूल्यो पाठ अगर दूसरे लोगो को पढ़ाते थे तो उनका पालन वे स्वयं भी करते थे, भले ही कोई भी भी परिस्थिति क्यों न रहीं हो। भले ही गांधी जी अंग्रेजी शासकों के कट्टर विरोधी थे लेकिन वे भी गांधी जी के 'जो कहो सो करो' के सिद्धांत के प्रशंसक थे। 
       ग़ांधी जी के इस सिद्धांत को हम प्रबंधकों के संदर्भ में देखते है तो हम पाते हैं कि जिन प्रबंधकों के कथनी और करनी में अंतर नहीं होता लोग उनका आदर तथा अनुसरण (Honor and Follow) करते हैं। आज के दौर में जो भी कंपनिया गांधी के इस सिद्धांत 'जो कहो सो करो' संस्कृति (Culture Of Walk the Talk) को अपना रही हैं वह  कम्पनियां आसानी से अपनी और ग्राहकों को आकर्षित कर लेती हैं। इन कंपनियों में आशा से कहीं अधिक समृद्धि प्राप्त हो रही है । इस सिद्धांत को अपनाने वाली कम्पनियां सफलता की ऊंचाइयों को प्राप्त कर रहीं हैं। 
2. उदाहरण द्वारा नेतृत्व (Lead by Example):- महात्मा गांधी जी एक ऐसे नेता थे जो उदाहरण द्वारा नेतृत्व (Leadership) को अधिक महत्व देते थे। गांधी जी ने  समाज की भलाई के कार्य करते हुए अनेक अच्छे - अच्छे कार्य किये है। उनके द्वारा किये गए इन अच्छे कामों द्वारा लोगो के समक्ष अनेक उदाहरण सामने आए हैं। परिणाम स्वरूप बहुत से लोग गांधी जी का अनुसरण करने लगे तथा उनके अनुयायियों(Followers) की संख्या लगातार तथा तेजी से बढ़ती गयी। गांधी जी भी यही चाहते थे कि अधिक से अधिक लोग उनका सहयोग करें। गांधी जी का कहना था कि यदि आप जीवन मे सफलता चाहते है तो आगे आकर नेतृत्व कीजिए। गांधीजी ने अनेक छोटे - बड़े अभियान चलाए है जैसे :- अस्पृश्यता की लड़ाई (Fight for Untouchables), साधारण जीवन व्यतीत करना (Living Simple Life), नमक यात्रा (Salt March), असहयोग आंदोलन (Non - Cooperation Movement), भारत छोड़ो आंदोलन (Quit India Movement) इत्यादि। गांधी जी ने इन सभी आंदोलनों में /अभियानों में आगे आकर नेतृत्व किया है। लोगों का गांधी जी पर बहुत विश्वास था क्योंकि वे जानते थे कि गांधी जी जो भी दूसरों से करवाना चाहते हैं उसे पहले वे स्वयं करेंगें। गांधी जी ने बताया है कि यदि आप नेता बनकर नेतृत्व करना चाहते हैं तो सबसे पहले लोगों में अपने प्रति विश्वास पैदा करो। जब लोग एक बार आपके अनुयायी बन जाएंगे तो कोई काम मुश्किल नहीं रहेगा। 
गांधी जी की इस विचारधारा को जब हम प्रबंध में अपना कर देखते हैं तो हुन देखते है कि लोग उन प्रबंधको पर अधिक विश्वास करते है जो 'उदाहरण द्वारा नेतृत्व' करते है। ऐसे प्रबंधक जिन रास्तों पे दूसरों को चलाना चाहते है उन पर पहले स्वयं चलकर देखते हैं। आज के युग में एक सफल प्रबंधक बनने के लिये यह अति आवश्यक है की लोगों में अपने प्रति विश्वास पैदा किया जाए और इस करना उदाहरण द्वारा नेतृत्व से ही सम्भव है। 
3. निर्दोष तथा ईमानदार ब्रांड तैयार करें ( Build Impeccable and Honest Brand):- इस कथन में गांधी जी को एक ब्रांड कहा गया है। गांधीजी एक ऐसे ब्रांड थे जो पूरी तरह से निर्दोष व ईमानदार थे। इस तरह के ब्रांड के विशेष गुण इस प्रकार हैं - 1. क्वालिटी (Quality), 2. सत्यता (Truthfulness), 3. सत्य-निष्ठा ( Intergrity), 4. लोगों से जुड़ना (Connectivity with people), 5. पारदर्शिता (Transparency) इत्यादि। ऐसे ब्रांड की एक मुख्य विशेषता यह होती है कि उसका लोगों के साथ भावनात्मक (Emotional) संबंध होता है न की विवेकपूर्ण (Rational)। अतः सफलता प्राप्ति के लिए अति आवश्यक है कि एक ब्रांड तैयार किया जाए। प्रायः ब्रांड के रूप में एक 'उत्पाद' अथवा आप 'स्वयं' हो सकते हैं।
गांधी जी के इस सिद्धांत को आधुनिक प्रबंध में लागू करके बेहतर परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं। जो ब्रांड महान है अथवा विशेष है उसका अपने उपभोक्ता के साथ भावनात्मक संबंध स्वयं ही बन जाता है। उपभोक्ता ऐसे ब्रांड से कभी जुड़ा नही होते हैं। व्यवसाय की भी यही एक इच्छा होती है। अतः यह सिंद्धांत अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
4. उपलब्ध संसाधनों से मेल खाती रणनीति (Strategy in Line With Available Resources):- गांधीजी के पास अंग्रेजी शासकों का सामना करने के लिये पर्याप्त संसाधन उपलब्ध नहीं थे, वे खाली हाथ थे। उस समय प्रोत्साहित लोग ही उनका एकमात्र संसाधन थे। उन्होंने उपलब्ध संसाधन के बेहतर प्रयोग करने की रणनीति तैयार की और अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए विजय प्राप्त की। गांधीजी अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए एकमात्र लोगों का साथ लेकर चले।
गांधी जी का यह सिद्धान्त भी प्रबन्धकों के लिए एक अमूल्य संपत्ति साबित होती है। एक प्रबन्धक उपलब्ध संसाधनों(धन, माल, मशीन व मानव-शक्ति ) को ध्यान रखते हुए रणनीति बनाकर आसानी से सफलता प्राप्त कर सकता है।
5. महान टीम बनाना व सामान्य हित के लिये काम करना (Build Great Team and Work for a Common Cause):- महान लोगों की टीम कठिन से कठिन समस्या का भी सरलता से हल कर सकती है। इसी विचार को ध्यान में रखते हुए गांधी जी ने अपने स्वतन्त्रता प्राप्ति के उद्देश्य को पूरा करने के लिए महान लोगों की एक टीम बनाई। इस टीम के मुख्य सदस्य इस प्रकार थे - पण्डित जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, राजगोपालचारी तथा जिन्ना । ये सभी लोग अलग अलग सिद्धान्तों वाले थे। लेकिन सभी ने एक जुट होकर सामान्य हित (Common) के लिए काम से किया। क्योंकि यह एक महान टीम थी इसलिए वे सभी कठिनाइयों को लांघते हुए विजय पर प्राप्त की।
प्रबंध के क्षेत्र में भी इसी तरह से महान लोगों की टीम बनाकर प्रबंधकीय समस्याओं पर आसानी से विजय प्राप्त की जा सकती है।
6. लोगों को व्यस्त रखना (Engage People):- गांधी जी ने लोगों को आज़ादी का सपना दिखाया। यह लोगों के दिलों दिमाग पर इस कदर छा गया कि वे हर समय केवल और केवल आजादी की बात करने लगे और सोचने लगे । आजादी को लेकर वो इतने प्रोत्साहित हो गए कि वे आजादी के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार थे तथा किसी भी सीमा तक जाने के लिए तैयार थे। गांधीजी की यही सोच थी कि यदि इन लोगों को एक सामान्य हित के काम मे व्यस्त कर दिया तो सफलता प्राप्ति आसान हो जाती है।
गांधीजी के इस सिद्धांत के सम्बंध में एक कम्पनी ने अनुसन्धान भी किया है। उससे निष्कर्ष निकला की जो लोग व्यस्त होते हैं वो अधिक उत्पादकीय (More Productive) होते हैं और वे संगठन से लंबे समय तक जुड़े रहते हैं। गांधी जी ने यह सिद्धान्त वर्षों पूर्व लागू किया था लेकिन यह सिद्धांत आज भी उतना ही सत्य है जितना उस समय रहा होगा।
अतः निष्कर्ष के रुप मे कहा जा सकता हैकि गांधी जी का जीवन अच्छाइयों तथा  उपदेशों से भरा हुआ है। इनका दर्शन शास्त्र जीवन के हर पहलू से जुड़ा हुआ है। जितना हम इनसे जुड़ते चले जाएंगे उतने ही अधिक प्रबंधकीय समस्याओं के हल प्राप्त होते जाएंगे।

Show More Show Less